मैं
अट्ठारह वर्ष की थी जब मेरे पिता की मौत हुई। मेरे पिता ही थे जो कमाते
थे। सब कुछ बदल चुका था । रिश्तेदार आये और चले गए। किसी ने ये भी नही सोचा
कि पिता के बाद इनके पास घर खर्च के पैसे भी हैं या नही? घर मे राशन है या
नही? मुड़कर किसी ने फ़ोन नही किया। मेरी माँ अवसादग्रस्त है। मेरी बहन भी
कुछ नही कमाती थी वो भी अवसादग्रस्त थीं। पिता के बाद मुझे ही घर संभालना
पड़ा। पिता के कंपनी मे ही मुझे नौकरी मे रखा गया ये देखकर की घर मे और कोई
कमाने वाला नही है। मैंने सिर्फ 12th पास किया था और एक वकील बनना चाहती
थीं, ज़िन्दगी मे बहुत कुछ करना चाहती थी।
अपने परिवार को मुझ पर गर्व कराना चाहती थी पर सब कुछ बदल चुका था। अब जिम्मेदारी मुझ पर थी अपने परिवार को चलाने की। मैं अपने पिता की राह मे चल पड़ी, वैसा ही करना चाहती थी जैसे वो करते थे परंतु उनके तरह मैं नही बन पाई पर हार नही मानी। इन तीन सालों मे बहुत कुछ बदला,कई ऐसे भी मोड़ आये जब मैं ज़िन्दगी को अलविदा कहना चाहती थी। ज़िन्दगी बहुत कठिन हो चुकी थी। माँ भी बीमार हो चुकी थी। एक डर था उन्हें खोने का। उसी डर के वजह से अंदर ही अंदर घुटती चली गयी।
अपने परिवार को मुझ पर गर्व कराना चाहती थी पर सब कुछ बदल चुका था। अब जिम्मेदारी मुझ पर थी अपने परिवार को चलाने की। मैं अपने पिता की राह मे चल पड़ी, वैसा ही करना चाहती थी जैसे वो करते थे परंतु उनके तरह मैं नही बन पाई पर हार नही मानी। इन तीन सालों मे बहुत कुछ बदला,कई ऐसे भी मोड़ आये जब मैं ज़िन्दगी को अलविदा कहना चाहती थी। ज़िन्दगी बहुत कठिन हो चुकी थी। माँ भी बीमार हो चुकी थी। एक डर था उन्हें खोने का। उसी डर के वजह से अंदर ही अंदर घुटती चली गयी।
समय
बदलता रहा, एक अलग सी चमक दिखने लगी। धीरे धीरे सब बदलता रहा। अपने ही दम
पर अपनी बड़ी बहन की सगाई और शादी की। कोशिश पूरी थी ये सोचकर अगर पापा होते
तो क्या क्या करते अपनी बेटी के लिए। रिश्तेदार ये सब देख, सड़ते रहे ये
सोचकर इसने ये सब अकेले कैसे कर लिया बिना उनकी मदद लिए? एक सकारात्मक
ऊर्जा लगी अपने अंदर। देखा तो मैं बदल चुकी थी। वो सहमी सी लड़की जो रहा
करती थी किसी अंधेरे मे वो अब एक सकारात्मक सोच लेकर अपनी मंज़िल के ओर बढ़
रही थीं।
ज़िन्दगी ने मुझे एक नही, बल्कि कई सारी चीज़ें सिखाई हैं।
धैर्य।
सकारात्मक सोच।
कठनाईयों से लड़ना।
नकरात्मक सोच आते ही डॉक्टर की मदद लेना।(आत्महत्या सोच)
बिना सोचे किसी की तुलना न करना।
जरूरतमंद व्यक्ति की मदद करना।
अपने अहम को अपने तक सीमित रखना।
-Bhavnna Sharmaa
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